संघर्ष की पृष्ठभूमि
1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के दौरान धार्मिक आधार पर जो विरोधाभास उभरे, वे समय के साथ और गहराते गए। विभाजन के समय हिंदू और मुसलमानों के बीच हुए कत्लेआम ने पाकिस्तान में धार्मिक असहिष्णुता के बीज बोए। पाकिस्तान को एक इस्लामी गणराज्य के रूप में पेश किया गया, जो सुन्नी बहुल था। परिणामस्वरूप, देश में धार्मिक असमानता और विभाजनकारी धार्मिक पहचान को बढ़ावा मिला।
पाकिस्तान के अस्तित्व के शुरुआती दिनों में ही, शिया और सुन्नी समुदायों के बीच भिन्नताएँ स्पष्ट हो गईं। इस्लामी गणराज्य में सुन्नी बहुलता ने शिया समुदाय को अलग-थलग कर दिया और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया। 1970 के दशक में जनरल जिया-उल-हक के शासनकाल में उन्होनें शरीयत कानून को लागू किया, जिससे शिया समुदाय के लिए समस्याएं उत्पन्न हुईं। शरीयत की सुन्नी व्याख्या ने शिया समुदाय को पाकिस्तान में अधिक सीमित और संवेदनशील बना दिया।
पिछले कुछ दशकों में, पाकिस्तान में शिया-सुन्नी संघर्ष ने अनेक रूप लिए। इराक और ईरान के बीच 1980 के दशक का युद्ध और 2003 के बाद इराक में उत्पन्न अवस्था ने इस संघर्ष को और ऊग्र बना दिया है। धार्मिक विद्वेष को हवा देने वाले समूहों ने साम्प्रदायिक हिंसा को और भड़का दिया। प्रमुख धार्मिक स्थलों पर हमले, इमामबारगाहों और मस्जिदों में बम विस्फोटों ने स्थिति को और गंभीर कर दिया।
समाज में व्याप्त असुरक्षा और अदालती एवं प्रशासनिक संरचनाओं की विफलता ने शिया-सुन्नी संबंधों को संकट में डाल दिया है। पाकिस्तान की राजनीति में धार्मिक पहचान का उपयोग वोट बैंक की राजनीति के लिए किया गया, जिसने विभाजनकारी प्रवृत्तियों को और पुख्ता किया। विभाजन के प्राचीन घाव और व्यापक क्षेत्रीय समीकरण इस संघर्ष को और गहरा एवं जटिल बनाते हैं। पाकिस्तान में सुरक्षा की स्थिति और आंतरिक विश्रामत्मक प्रक्रियाओं को जानने के लिए इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अवलोकन अनिवार्य है।
संघर्ष के कारण और मोटिवेशन
शिया-सुन्नी मुस्लिमों के बीच चल रहे संघर्ष की जड़ें गहरी और बहुआयामी हैं, जिसमें जमीन के लिए हो रहा झगड़ा एक महत्वपूर्ण कारक है। पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में जमीन और संसाधनों की कमी ने आर्थिक और सामाजिक कुंठाओं को जन्म दिया है, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच तनाव और विवाद बढ़ते जा रहे हैं।
धार्मिक असहिष्णुता भी इस संघर्ष का एक प्रमुख कारण है। शिया और सुन्नी मुस्लिमों के बीच के ऐतिहासिक मतभेद और धार्मिक शिक्षाओं की भिन्नताएं अक्सर हिंसक झगड़ों में परिणत होती हैं। इन मतभेदों के चलते, धार्मिक नेताओं द्वारा कभी-कभी अपनी व्यक्तिगत और सामुदायिक महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने के लिए असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जाता है।
राजनीतिक लाभ भी इस संघर्ष को भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राजनीतिक दल और नेता इन समुदायिक विभाजनों का फायदा उठाते हैं, जिससे उन्हें अपने वोट बैंक को मजबूत करने का मौका मिलता है। स्थानीय नेताओं का पारस्परिक संवाद की कमी भी स्थिति को और जटिल बनाती है। जब संवाद की प्रक्रिया बाधित होती है, तब गलतफहमियां और बढ़ती हैं, जिससे हिंसा और संघर्ष को आसानी से बढ़ावा मिलता है।
प्रणालीगत भ्रष्टाचार भी एक महत्वपूर्ण कारक है। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और अधिकारियों की निष्क्रियता के कारण स्थिति और भी बिगड़ती है। जब संस्थागत समर्थन और न्याय की प्रणाली कमजोर होती है, तब समुदायों के बीच का विश्वास भी टूटता है और संघर्ष की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं।
इन सबके परिणामस्वरूप, स्थानीय जनता को गहरे सामाजिक और आर्थिक झटके का सामना करना पड़ता है। समुदायों के बीच की अस्थिरता और हिंसा से आम नागरिकों का जीवन दयनीय हो जाता है, और उनके अधिकारों और संसाधनों की सुरक्षा की उम्मीद खत्म हो जाती है। इस प्रकार, जमीन के लिए हो रहा यह संघर्ष न केवल आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को उजागर करता है, बल्कि उसके धार्मिक, राजनीतिक और प्रणालीगत आयामों को भी स्पष्ट रूप से सामने लाता है।
इस संघर्ष के सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
पाकिस्तान में शिया-सुन्नी संघर्ष ने देश के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव डाला है। जान-माल का व्यापक नुकसान तो इन प्रतिद्वंद्विताओं की एक प्रमुख पहचान बन गया है। नागरिकों के बीच विश्वास और सह-अस्तित्व की भावना में कमी आई है, जो कि सामाजिक जीवन के लिए घातक सिद्ध हो रही है। सामुदायिक विभाजन ने न केवल स्थानीय व्यापार को चोट पहुंचाई है, बल्कि रोजमर्रा जिंदगी में सामान्यता का अभाव भी ला दिया है।
स्थानीय व्यापार को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। व्यापारिक प्रतिष्ठान, विशेषकर वे जो शिया या सुन्नी क्षेत्रों में स्थित हैं, निरंतर हिंसा और असामाजिक तत्वों के टारगेट बन रहे हैं। इससे व्यापारिक गतिविधियां धीमी पड़ गई हैं और बेरोजगारी दर में वृद्धि हुई है। अल्पसंख्यक मामलों में रूचि रखने वाले निवेशक भी अपना धन सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित कर रहे हैं, जिससे एकाधिक उद्योग धंधों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
शरणार्थियों की बढ़ती संख्या भी एक प्रमुख चिंता का विषय बन गई है। संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों से सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन करने वाले शरणार्थी न केवल नए स्थानों की जनसंख्या में वृद्धि कर रहे हैं, बल्कि स्थानीय संसाधनों पर अतिरिक्त भार भी डाल रहे हैं। शरणार्थियों के लिए आश्रय, भोजन और रोजगार का प्रबंध करना स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।
इस संघर्ष ने पूरे समाज को अस्थिर कर दिया है। शांति और सुरक्षा की पवित्र भावना में कमी आई है, और इसके चलते सार्वजनिक सेवाओं और कानून-व्यवस्था का ह्रास हो रहा है। कानून व्यवस्था की अस्थिरता ने अपराध दर को बढ़ावा दिया है, जिससे आम जनता की जीवन गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।