18 नवंबर 1962 जगह लद्दाख की चशुल की घाटी Indian army के 13 कुमाहू बटालियन के सी कंपनी के 124 जवान बर्फीले सेक्टर में भारत की पहरेदारी कर रहे थे।
Indian army के नए रंगरूटों को लद्दाख की हड्डियां फाड़ देने वाली ठंड का अनुभव नहीं था। लेकिन मुल्क को उनके कंधों पर बहुत भरोसा था। 124 जवानों को लीड कर रहा था।
जोधपुर का 38 साल का एक सालोना सा शख्स जिसका नाम उसके चेहरे से बिल्कुल मेल नहीं खाता था।
मेजर शैतान सिंह लेफ्टिनेंट करनाल हेम सिंह का बेटा 1 दिसंबर 1924 को पैदा हुआ। लड़का जिस ने 18 नवंबर 1962 को चीनी सैनिकों के लाशों पर तांडव किया।
भारत चीन युद्ध शुरू हुए 1 महीना हो चुका था। सैनिकों को यहां समझते जरा सा भी देर नहीं लगा क्या हुआ अपना कलेजा बटोर कर टूट पड़ने का वक्त आ गया है। मेजर शैतान सिंह ने गोली चलाने का आदेश दे दिया।
जहां कुछ देर पहले बुध के मुस्कान जैसी शांति छाई हुई थी। अचानक पूरा इलाका गोली बम के आवाज से गूंज उठा मगर चंद मिनट बित्ते ही भारतीय सैनिक समझ गए। या एक जल है।
चीनी सेना का फैलाया हुआ। चीन के पीपल सेलिब्रेशन आर्मी ने अपने सैनिक ना भेज कर पहले के याक के गोलो में लालटेन बांधकर उन्हें भारत की और भेजा था।
उसका अंधेरे में एक बात में समझना मुश्किल था। के सामने जानवर है या सैनिक चीन ने ऐसा क्यों किया था क्योंकि उसे पता था कि चशुल घाटी पर भारत के पास बहुत सैनिक नहीं है। उनके पास हथियार तो और भी कम है।
हमारे सैनिकों के उलट चीनी सैनिक लद्दाख कि ठंड से लड़ने की पूरी तैयारी में थे। वह भारी तादाद में हथियार लाए थे।Indian army के पास जो बंदूके थी। वह दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बेकार मान ली गई थी।
उनके पास सिर्फ लाइट मशीन गन, एलएमजी, और 3 नोट 3 राइफल थी।
यह राइफल एक बार में एक गोली दाग दी थी। भारत के 124 सैनिकों पर चढ़ाई करने के लिए चीन ने 3 हजार से ज्यादा सैनिक भेजे थे।
सुबह 5:30 बजे चीनी सैनिकों ने बंदूक और मोटार के साथ भारतीय सैनिकों पर हमला बोल दिया। मेजर शैतान सिंह ने अपने वायरलेस पर सीनियर ऑफिसर से मदद मांगी।
उन्हें जवाब मिला कि अभी मदद पहुंचाने की बिल्कुल गुंजाइश नहीं है और बाकी सैनिकों के साथ पीछे हट जाए।
उस समय Indian army की प्राथमिकता अपने जवानों की जान बचाना था। शैतान सिंह का दिल नहीं माना चौकी छोड़ने का मतलब था हार मान लेना और शैतान सिंह 18 नवंबर को हार मानने वाले नहीं थे।
उन्होंने सैनिकों के साथ मीटिंग की अलग अलग ग्रुप मैं बाट कर अलग-अलग जगहों पर तैनात किया फिर चीनी सैनिकों को मारना शुरू किया। बिना कवर के यू एक जगह से दूसरी जगह जाने के चलते उन्हें कई गोलियां लगी।
कुछ घंटों के बाद कई सैनिक शहीद हो चुके थे। लेकिन खून में सने मेजर शैतान सिंह आंखें देख कर कोई सैनिक पीछे नहीं हटा। मेजर के बुरी तरह घायल होने पर 2 सैनिकों ने उन्हें बर्फीली चट्टान के पीछे ले गए।
नीचे जाकर मेडिकल हेल्प लेने को कहा लेकिन मेजर ने मना कर दिया।
उल्टा उन्होंने मशीन गन मंगाई एक मशीन गन के ट्रिगर से रस्सी बांधकर उसका दूसरा सिरा अपने पैर से बांध लिया और एक बंदूक हाथ में ली लड़ते रहे मारते रहे
जब सैनिकों के पास असला खत्म हो गया तो उन्होंने हाथों से लड़ना शुरू किया। 124 में से 114 जवान शहीद हो गए थे। उस दिन पांच युद्ध बंदी बना लिये गए थे जिसमें से एक की हिरासत में मौत हो गई थी।
लेकिन हर कोई आखरी दम तक लड़ा। नतीजा रेजांग पास में चीन 1300 से 1400 सैनिक मारे गए
मेजर शैतान सिंह और उनके जवानों ने ऐसी दिलेरी दिखाई के 3 दिन बाद 21 नवंबर 1962 को सीजफायर का ऐलान कर दिया गया।
बाद में पता चला कि रैजांग पास में है। चीन को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था। मेजर शैतान सिंह को मौत ने कब अपने आगोश में ले लिया नहीं पता चला।
3 से 4 महीने के बाद जब बर्फ पिंगली और Indian army ने अपने सैनिकों के शव खोजने शुरू किए।
मेजर शैतान सिंह उसी चट्टान के पीछे जमें हुए मिले। उनके हाथ से मशीन गन की पकड़ ढीली नहीं हुई थी। और दूसरी मशीन गन की रस्सी पैर में अब तक बंधी हुई थी।
शहीद हुए 114 जवानों के शव भी वही मिले टूटे हुए बंदूकों के साथ लेकिन कोई भी अपनी पोस्ट छोड़कर भागा नहीं था।
ये वो सैनिक थे जिन्होंने एक भी चीनी को घुसने नहीं दिया। मेजर शैतान सिंह के पार्थिव शरीर का उनके होमटाउन जोधपुर में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। बाद में उन्हें परमवीर चक्र के साथ सम्मानित किया गया।
साल 1980 में भारत सरकार शिपिंग कॉरपोरेशन एक क्रूड ऑयल टैंकर को मेजर शैतान सिंह का नाम दिया था। जिसने 25 सालों तक भारत की सेवा की थी।
यह कहानी 1962 में रैजांग लापरवाही घटना की जिसने देश के 124 जवानों को अमर बना दिया।
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